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दम घुट रहा है रात दिन की सर्द जंग से
बाहर निकाल दे मुझे ठंडी सुरंग से
इक चीख दब के रह गई आफ़ाक़ के करीब
निकलेगा पा-ए-फ़ील क्या दहन-ए-निहंग से
मुमकिन है ख़ाके-पा का करे वो भी इंतज़ार
मिलता है उस का रंग भी पत्थर के रंग से
चख लूँ ये कह के चाट गया रोशनी तमाम
वो साँप मार सकेगा न तेगो-तुफ़ंग से
खामोश बेजुबान सा मैं देखता रहा
शर्मा रही थी धूप भी चेहरों के रंग से
वो हाथ धो न बैठे बसारत से एक दिन
जो खेलता है हल्क़-ए-अश्काले-रंग से
होशो हवास अब के सुबकसर हुए 'निज़ाम'
आवाज़ जाने कैसी निकलती है चंग से
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